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हल षष्ठी व्रत

Published On : July 4, 2022  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

हलषष्ठी या हरछठ व्रत

यह व्रत मातृत्व सुख एवं संतान को पोषित करने वाला होता है। इसे विविध नामों से स्थान एवं भाषा भेद के अनुसार जाना है। जैसे ललही छठ, तिन छठ, कमर या खमर आदि छठ के नामों से भी जाना जाता है। जिससे उत्साहित होकर माताये कठोर व्रत रखती हैं। तथा अपनी संतान यानी पुत्र की लंबी उम्र की प्रार्थना हलषष्ठी माता से करती है। ऐसी कामना कि जिससे उनकी संतान लंबी आयू वाली तथा गुण एवं शील सम्पन्न होकर जीवन को धन्य बना सके। यह व्रत प्रति वर्ष भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष को षष्ठी तिथि में मनाया जाता है। इसे स्थानीय भाषा में महिलायें हरछठ भी कहती है। यह खेतिहर किसानों के खेती बाड़ी के रूप में प्रयोग होने वाले हल के महत्व को भी दर्शाता है। तथा हल को अपने अस्त्र के रूप में धारण करने वाले भगवान बलराम के जन्म उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। यह भगवान कृष्ण के अग्रज भ्राता जिन्हें हलधर भी कहा जाता है के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस व्रत में वैसे सभी अन्नों एवं पदार्थों का जो कि हल एवं बैल के जोतने से उत्पन्न होते हैं। उन्हें व्रती महिलायें नहीं खाती है। अर्थात् यह व्रत पुत्रवती महिलाओं का है। हरछठ पूजा के लिये कुशा एवं पलाश तथा झड़बेरी के पौधे को चुना जाता है। इन तीनों की एक या फिर तीन-तीन टहनियों को लाकर किसी खुले स्थान में साफ सुथरे जमीन में गाड़ा जाता है। तथा उसके आस-पास भैंस के गोबर से लीपकर कर उसे शु़द्ध बनाया जाता है। जहाँ मिट्टी नहीं उपलब्ध होती ऐसे स्थानों में किसी साफ-सुथरे गमलें में इन टहनियों को गाड़ा जाता है। फिर नाना प्रकार की वस्तुयें जो इस पूजा में विहित होती है। को संग्राहित करके। मातायें धूप दीप आदि लेकर हलषष्ठी की पूजा करने के लिये जाती है। कहीं-कहीं पर पंड़ित एवं पुरोहितों के सहयोग से भी इस पूजा को करती है। इसमें गाय के दूध एवं दही तथा उससे निर्मित सभी पदार्थों को वर्जित किया गया है। हालांकि भैंस का दूध एवं घी प्रयोग में लिया जाता है। तथा महुआ को भी खाने में प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त फंसही के चावलों का भी प्रयोग होता है।

हलषष्ठी व्रत एवं पूजा विधि

इस पूजा में बेहद पवित्रता एवं शुद्धता का ध्यान दिया जाता है। साथ में ही किसी खेत एवं हल से जुती हुई एवं उत्पादित फसल एवं अन्न आदि का प्रयोग भी इस व्रत में पूर्णतयः व्रती महिलाओं,  माताओं के लिये वर्जित होता है। हालांकि मिट्टी के बने हुये एवं चीनी के बहुत ही छोटे-छोटे कुढ़वों को गेंहू, जौ, चना एवं चने की दाल, बाजरा, ज्वार, रामदाना, महुआ, आदि से भरा जाता है। तथा कुम्मार के यहाँ से लाए गये कुढ़वों को बाहर से चूने से रंगा जाता है। इन कुढ़वों की संख्या पुत्रों के अनुसार निश्चित की जाती है। तथा उन्हें सजाकार किसी एक बड़ी थाल जो पीतल आदि की हो में रखा जाता है। हलषष्ठी माता को वस्त्र चढ़ाया जाता है। जिसमें एक कपड़े को हल्दी से रंगकर मातायें हलषष्ठी माता को अर्पित करती है। इस प्रकार व्रती महिलायें माता हलषष्ठी का ध्यान करके उन्हें स्नान कराती है। और फिर वस्त्र एवं सौभाग्य की वस्तुयें भी चढ़ाती है। तथा धूपदीप आदि से उनकी पूजा बड़ी ही भक्ति भाव से करती है। इस अवसर पर सरस्वती के संकेत के रूप में कुछ पुस्तकों की भी पूजा की जाती है। तथा बच्चों के खिलौनों को माता के पास पूजा में रखा जाता है। इसके बाद माताये अपनी सम्पूर्ण थाल की जो भी सामाग्री है माता को अर्पित करती है। तथा कुछ सामाग्री माता के पास ही छोड़ देती है। इसमें खीरे के फल का भी बड़ा महत्व होता है। तथा उसे भी पूजा मे शामिल किया जाता है। इस प्रकार कुछ लोकरीति के अनुसार भी वस्तुओं को शामिल करके माताये हलष्ठी की पूजा बड़े ही भक्तिभाव से करती है। कहीं-कहीं मान्यतायें प्रचलित है कि महिलायें जमीन में गढ्ढ़ा खोदकर उसमें जलभर देती हैं। तथा उसे तालाब की आकृति देते हुये पलाश एवं कुशा तथा झड़बेरी के पौधे को उसके किनारें में गाढ़ कर फिर पूजती हैं। तथा हरछठ यानी हलषष्ठी माता को कच्चा सूत लपेटी हैं। और विधान से उनकी पूजा अर्चना करती हैं। इस अवसर पर हलधर यानी भगवान बलराम एवं उनके अस्त्र हल की भी पूजा होती है।

हलषष्ठी व्रत कथाः

हल षष्ठी व्रत के संदर्भ में कुछ कथायें इस प्रकार है। बहुत पहले पौराणिक काल में एक ग्वालिन जो कि गाँव एवं गलियों में गौरस को बेचने का काम करती थी। एक दिन वह अपने निमय के अनुसार दूध एवं दही को बेचने जा रही थी। तभी उसे प्रसव पीड़ा बढ़ गयी। जिससे व्याकुल होकर वह सोच मे पड़ गयी कि आज उसका गौरस यानी दूध दही वह नहीं बेच पायेगी। ऐसे विचार उसके मन आ ही रहे थे तभी उसने व्याकुल होकर किसी तालाब के किनारें पलाश एवं कुशा तथा झड़बेरी के सहारे ओट लेते हुये कुशलता पूर्वक पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार वह सकुशल अपने घर पहुंची और उसने षष्ठी माता का आभार माना तथा तब से पलाश एवं कुशा तथा झड़बेरी की पूजा प्रतिवर्ष भाद्र कृष्ण पक्ष षष्ठी तिथि में होने लगी।

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