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हयग्रीव जयंती

Published On : April 29, 2024  |  Author : Astrologer Pt Umesh Chandra Pant

हयग्रीव जयंती एवं उसका महत्व

भगवान श्री हरि विष्णू जो कि भक्तों के कल्याण के लिये शंख, चक्र गदा और पद्म को धारण किये है। युग विशेष एवं देवताओं और भक्तों एवं साधू संतों तथा आम जन की याचना के कारण विभिन्न अवतारों को धारण करते हैं। जिससे इस धरती की सुरक्षा हो सके और भक्तों के परम आश्रम भगवान के उन्हें दर्शन भी मिल सके। यह हयग्रीव अवतार भगवान विष्णू का ही परम अवतार हैं। इस अवतार में भगवान विष्णू ने घोड़े के सिर एंव गर्दन को धारण किया हुआ है। जिससे इनका नाम हयग्रीव हुआ है। हय का अर्थ घोड़ा एवं ग्रीव का अर्थ गर्दन से है। यानी भगवान घोड़े का सिर एवं गर्दन वाले रूप को धारण किये हुये है। भगवान का यह रूप परम कल्याणकारी है। इनके स्मरण एवं पूजन से भक्तजनों को वांछित फलों की प्राप्ति होती है। भगवान हयग्रीव की यह हयग्रीव जयंती प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि में मनाई जाती है। इस दिन श्रावण पूर्णिमा के अवसर पर वेद एवं विद्या में पारंगत ब्राहणों का श्रावणी कर्म होता है। तथा अन्य महत्वपूर्ण त्यौहारों एवं पर्व का इस श्रावण पूर्णिमा के दिन संबंध होता है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों एवं पुराणों में भगवान के इस रूप का वर्णन प्राप्त होता है। श्री हरि विष्णू के नाभि से कमल प्रकट होने के कारण इन्हें पद्नाभ भी कहा जाता है। तथा उसी कमल से ब्रमहा जी उत्पत्ति के आख्यान प्राप्त होते हैं। आदि काल में क्षीरोदक्षि से निकले कुछ बिन्दू जो मधू कैटभ नाम के राक्षस थे वह उस कमल पर पहुंच कर भगवान के निःश्वास से निकली हुई श्रुति जिसे परम पिता ब्रह्मा जी मनन कर रहे थे। उसे चुराकर अन्नत सागर में जा छिपे जब इसका भान परम पिता ब्रह्म जी को हुआ तो वह श्री हरि की साधना में लीन होकर उसकी जानकारी भगवान विष्णू को दिया जिससे भगवान ने उन्हें मारकर श्रुति का उद्धार किया और उसे पुनः ब्रह्मा जी को सौंप दिया। इसका वर्णन स्कंद पुराण में प्राप्त होता है। स्कन्द पुराण के अनुसार भक्तों को अपने नित्य कल्याण हेतु भगवान के इस अवतार की पूजा नित्य विधि विधान के साथ करना चाहिये। 

हयग्रीव अवतार की खास बातें

पुराणों के अनुसार भगवान ने श्रावण महीने में तथा श्रावण नक्षत्र में ही इस अवतार को धारण किया था। तथा सामवेद का विधिवत गान किया था। इस श्रावण पूर्णिमा में यजुर्वेदी आदि के उपाकर्म होते हैं। सिन्धू एवं वितस्ता नदियों के तट पर भक्तों का एक बड़ा हुजूम उमड़ता है। तथा यहाँ बड़े उत्सवों का आयोजन भी किया जाता है। इस श्रावण पूर्णिमा में यहाँ स्नान एवं दान तथा भगवान के नामों के स्मरण का बड़ा ही चमत्कारिक फल प्राप्त होता है। स्कन्द पुराण के अनुसार इस अवसर पर जल क्रीड़ा करने एवं भगवान के नामों का स्मरण करने से वांछित फलों की प्राप्ति स्त्री एवं पुरूषों को होती है।

हयग्रीव जयंती एवं पूजा विधि

भगवान हयग्रीव जयंती के अवसर पर पूजन एवं व्रत की सम्पूर्ण सामाग्री को एकत्रित करके भगवान की पूजा पूरे विधि विधान से षोड़शोपचार विधि से करें। तथा उनके नामों का स्मरण एवं भजन करते रहे। तथा अपने पूजा एवं जप कर्म को भगवान हयग्रीव को अर्पित कर दें। अपनी भूल के लिये क्षमा प्रार्थना करें। इस प्रकार सम्पूर्ण पूजा एवं व्रत के नियमों का पालन भक्ति पूर्वक करने से भगवान वांछित फलों को देने वाले होते हैं।

हयग्रीव जयंती एवं कथा

भगवान हयग्रीव के संबंध में पौराणिक ग्रन्थों में कुछ प्रचलित कथानक इस प्रकार है। एक बार भगवान विष्णू एवं माँ लक्ष्मी जी में किसी बात में द्वन्द हो गया किन्तु माँ लक्ष्मी जी ने देखा कि भगवान विष्णू हंस रहे है। जिससे उन्हें लगा कि वह उनके रूप की उपहास कर रहे है। ऐसे में लक्ष्मी जी ने उन्हें हयग्रीव अवतारण को धारण करने का श्राप दिया था। हालांकि यह भगवान श्री हरि की ही माया थी। क्योंकि उन्हें इस अवतार के जरिये हयग्रीव नाम के राक्षस का संहार करना था। क्योंकि उसे देवी से वरदान प्राप्त था कि उसे कोई साधारण मनुष्य आदि नहीं मार सकते है। किन्तु उसकी मृत्यु ऐसे मनुष्य या देवता के हाथों से हो जिसका सिर एवं गर्दन घोड़े के आकार में हो अन्य किसी के हाथो नहीं, ऐसे में भगवान को इस अवतार को धारण करने के लिये लीला रचनी पड़ी और इस रूप को धारण करके उस राक्षस को मारकर वेदों को पुनः परम पिता ब्रह्मा जी को दे दिया था। जिससे इस संसार में अज्ञान के तम का नाश हो सका और वेदों की वाणी पुनः गूंजने लगी।

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